अवतरण, परिवार एवं प्रारंभिक शिक्षा
शास्त्रों में ऐसा अक्सर विवरण मिलता है कि जब भी इस धरा पर कोई महापुरुष या महान आत्मा अवतरित होती है तो उस समय प्रकृति अपना एक विशेष रूप दिखाती है । ऐसा ही कुछ परम श्रद्धेय परम श्रद्धेय अघोर मूर्तिके इस धरती पर अवतरण के समय हुआ ।उस समय बहुत जोरों से आंधी-तूफान और पानी आया था ।यह देख कर परम श्रद्धेय अघोर मूर्ति के नाना जी ने यह भविष्यवाणी की कि यह बालक आगे चलकर एक महान सिद्ध पुरुष एवं संत बनेगा और वह दिन था 4 जून 1971 दिन शनिवार, रात लगभग 8:00 बजे । परम श्रद्धेय अघोर मूर्ति का जन्म स्थान रेहला जो कि उस समय बिहार प्रांत में था और वर्तमान में झारखंड प्रांत का एक स्थान है जो जिला पलामू में पड़ता है ।
परम श्रद्धेय अघोर मूर्ति के पूज्य पिताजी का नाम तारकेश्वर सिंह एवं पूज्य माता जी का नाम शकुंतला सिंह है । पांच भाइयों एवं तीन बहनों का यह एक भरे पूरे परिवार में परम श्रद्धेय अघोर मूर्तिइन में चौथे क्रम पर हैं ।इनके बाबा पूज्य बाबू शिवपूजन सिंह, आजाद हिंद सेना के सदस्य थे, अंग्रेज सरकार इनको खोज रही थी । इस कारण इनके बाबा अपने मूल निवास सिताबदियारा जो कि बिहार के छपरा जिले में पड़ता है, वहाँ से पैदल ही बर्मा देश चले गए थे और फिर नेता जी सुभाष चंद्र बोस जी के रहस्यमय निधन के बाद जब अंग्रेजों का आज़ाद हिन्द सेना के लोगों की गिरफ़्तारी एवं दमन का चक्र आरम्भ हुआ तो वो छिपने के लिए पलामू के जंगलों में रहने लगे तथा आजादी के बाद मूल रूप से रेहला जो कि जिला पलामू में पड़ता है, वहीं के निवासी हो गए ।पिताजी श्री तारकेश्वर सिंह भी आजादी के बाद रेहला आ गए और यहीं से उन्होंने अपनी स्नातक तक की शिक्षा पूर्ण की ।परिवार में राष्ट्र भक्ति, धर्म एवं अध्यात्म का सहज वातावरण था ।
परम श्रद्धेय अघोर मूर्ति की प्रारंभिक शिक्षा, वहीं रेहला के एक प्राइवेट इंग्लिश स्कूल से हुई ।बचपन से ही परम श्रद्धेय अघोर मूर्ति को धर्म और अध्यात्म तथा मानव सेवा से लगाव था और वह अपनी बहुत कम उम्र में ही अपनी उम्र के बच्चों को जोड़कर लोगों की सेवा करने का प्रयास करते थे ।इनके घर के पास में ही एक शिव मंदिर था जो आज भी है, जिसमें परम श्रद्धेय अघोर मूर्ति सदैव जाते थे एवं वहाँ जो भी श्रमदान हो सकता था, करते थे, साथ ही अपना पूजा पाठ भी किया करते थे ।जब भी महाशिवरात्रि का पर्व आता तो परम श्रद्धेय अघोर मूर्ति सभी भक्तों के लिए बेलपत्र का प्रबंध किया करते थे और कभी कभी तो किसी के बाग़ से चोरी कर के भी ले आते थे ताकि भक्तों को अपनी पूजा में कोई असुविधा न हो ।परम श्रद्धेय अघोर मूर्ति की अपनी एक तांबे की डलिया थी, जिसमें वे पूजा की सभी सामग्रियां रखते थे ।इनका परिवार आरंभ से ही बहुत ही धार्मिक, आध्यात्मिक एवं मानव सेवा युक्त संस्कारी परिवार है ।ऐसा माना जाता है कि परम श्रद्धेय अघोर मूर्ति जन्म से ही एक तरह से स्वयं सिद्ध हैं और अनुकूल पारिवारिक वातावरण ने इनके अंदर अध्यात्म, धर्म एवं मानव सेवा के संस्कारों को और भी सशक्त किया और यही भविष्य की अध्यात्म एवं मानव सेवा का आधार बना ।
इनके नाना बाबू वशिष्ठ नारायण सिंह, इस युग के महान शंकर अवतारी, औघड़ संत परम पूज्य अघोरेश्वर अवधूत भगवान राम जी तथा उनके वाराणसी स्थित श्री सर्वेश्वरी समूह से 1961 से जुड़े थे ।इसी कारण परम श्रद्धेय अघोर मूर्ति का भी परिवार श्री सर्वेश्वरी समूह से जुड़ गया और अघोरेश्वर अवधूत भगवान राम जी के विचारों से प्रभावित होकर उनकी शिक्षाओं पर चलने लगा ।चूंकि बचपन से ही परिवार में एक आध्यात्मिक वातावरण रहा, इसी कारण परम श्रद्धेय अघोर मूर्ति का भी झुकाव एवं रुचि अघोरेश्वर अवधूत भगवान राम जी के प्रति होने लगी । ऐसा बताया जाता है कि बचपन में जब परम श्रद्धेय अघोर मूर्ति अपने परिवार के साथ वाराणसी स्थित अवधूत अघोरेश्वर भगवान राम जी के आश्रम में जाते थे तो अघोरेश्वर अक्सर उनको अपनी गोद में खिलाते थे ।इस विषय पर परम श्रद्धेय अघोर मूर्ति ने बताया कि उन्हें तो नहीं मालूम लेकिन परिवार के लोगों के द्वारा उन्होंने यह सुना था ।बचपन में जब भी वह नगर उटारी आश्रम में सर्वेश्वरी समूह का ध्वज देखते तो उन्हें बहुत अच्छा लगता था जबकि सर्वेश्वरी समूह क्या है, वहाँ क्या होता है, यह सब उन्हें नहीं मालूम था । वे परिवार के साथ जब भी वाराणसी के सर्वेश्वरी समूह के आश्रम में आते-जाते तो वहाँ पर भी जब भी सर्वेश्वरी समूह का ध्वज देखते थे तो उन्हें उससे एक बहुत गहरा लगाव सा महसूस होता था कि यह हमारा है, यही हमें जाना है, यही हमारा लक्ष्य है और उन्हें आश्रम में बहुत अच्छा लगता था, धीरे-धीरे इस तरह से वे अघोरेश्वर अवधूत भगवान राम जी की शिक्षाओं एवं सेवा के संपर्क में आए ।
परिवार के लोग ऐसा बताते हैं कि बचपन से ही परम श्रद्धेय अघोर मूर्ति सफाई का विशेष ध्यान रखते थे और आसपास के बच्चों को जमा कर वे सफाई करने का कार्य करते थे ।उनकी आदत सूर्योदय से पहले ही बचपन से ही नहा लेने की है और दिन में तीन से चार बार नहाते थे और यह क्रम आज भी अनवरत जारी है ।इनको कभी किसी ने बचपन में गुस्सा होते हुए नहीं देखा और कोई भी बात यह धैर्य के साथ सुनते थे और उसे करते भी थे ।
आत्म बल के उत्थान से जीवन सफल होता है।वास्तविक शांति आत्मा में संतोष प्राप्त होने से ही होती है ।जीवन क्षणभंगुर है अतः प्रत्येक क्षण अपने इष्ट का ध्यान आवश्यक है ।
पूज्य अघोरेश्वर अवधूत भगवान राम जी
उच्च शिक्षा
रेहला में पांचवी तक की शिक्षा पूर्ण करने के बाद 1984 में परम श्रद्धेय अघोर मूर्ति इलाहाबाद, अपने भाइयों के साथ आ गए जो कि वहाँ पर पहले से ही शिक्षा प्राप्त कर रहे थे ।ये सभी भाई साथ-साथ साउथ मलाका मोहल्ले में रहते थे ।छठवीं से लेकर स्नातकोत्तर तक की शिक्षा परम श्रद्धेय अघोर मूर्ति ने इलाहाबाद में ही पूर्ण की ।परम श्रद्धेय अघोर मूर्ति को “मेधावी छात्र” की छात्रवृत्ति भी मिलती थी जो कि जिला स्तर पर दी जाती थी ।विज्ञान की शिक्षा के लिए इलाहाबाद के प्रसिद्ध ईसीसी कॉलेज से इन्होंने जूलॉजी, बॉटनी और केमिस्ट्री में बीएससी किया तथा कानपुर विश्वविद्यालय से समाज शास्त्र में स्नातकोत्तर किया ।एक समय ऐसा आया जब इनके बड़े भाई अपनी-अपनी शिक्षा को पूर्ण करके वापस चले गए, तब इन्होंने अपनी बाक़ी की शिक्षा अपने छोटे भाई राज के साथ रह कर पूरी की ।पढ़ाई पूरी होने पर परम श्रद्धेय अघोर मूर्ति की बैंक आफ बड़ोदा में नौकरी भी लगी थी परंतु उस को उन्होंने स्वीकार नहीं किया क्योंकि परमात्मा को इनके लिए कुछ और ही स्वीकार्य था ।
अघोर पथ की यात्रा
अपने सनातन धर्म में कुछ बहुत से महत्वपूर्ण विचार प्रचलित हैं, जिनमें पूर्वजन्म के कर्म तथा वर्तमान जन्म के कर्म, विचार एवं चरित्र, आपकी जीवन यात्रा निर्धारित करते हैं, यह सर्वमान्य भी है । साथ ही इस विचार की भी अटूट एवं निर्विवाद मान्यता है कि समय-समय पर समाज एवं मानव कल्याण के मार्गदर्शन के लिए इस धरती पर ईश्वर, कुछ अति विशिष्ट आत्माओं का अवतरण करवाता है ।हमारे सनातन धर्म के ऐतिहासिक ग्रंथों में इस प्रकार की अति विशिष्ट आत्माओं का बहुत बड़ा उल्लेख है या यदि ये कहा जाए कि हमारा सनातन धर्म, इन ईश्वरीय अति विशिष्ट आत्माओं के अवतरणों तथा उनके मानव-कल्याण के उल्लेखों से परिपूर्ण है और यह क्रम कमोवेश अभी भी अपनी पुण्य भारत-भूमि में जारी है ।
परम श्रद्धेय अघोर मूर्ति क्योंकि पूज्य अघोरेश्वर अवधूत भगवान राम जी के विचारों से एवं उनके सेवा कार्यों से बहुत प्रभावित थे, इसलिए उन्होंने अपनी जीवन-यात्रा एवं लक्ष्य के लिए इसी अघोर पथ का अनुगमन करने का निर्णय लिया ।क्योंकि परम पूज्य अघोरेश्वर अवधूत भगवान् राम जी ने औघड़ तप से प्राप्त शक्तियों का समाज कल्याण के लिए सदुपयोग करने एवं औघड़ परम्परा को जन साधारण में स्वीकार्यता हेतु क्रांतिकारी योगदान दिया तथा समाज में व्याप्त अनेकों कुरीतियों के विरुद्ध अभूतपूर्व जन-जागरण किया ।यह विचार एवं पथ परम श्रद्धेय अघोर मूर्ति के मन-मस्तिष्क एवं आत्मा की गहराइयों में अंकित हो गया ।परम श्रद्धेय अघोर मूर्ति ने सर्वेश्वरी समूह के आश्रम में अपनी सेवाएं सदैव आवश्यतानुसार दीं ।महत्वपूर्ण तथ्य है कि परम श्रद्धेय अघोर मूर्ति को किसी भी प्रकार की गुरु दीक्षा प्राप्त नहीं हुई और ना ही किसी गुरु ने उनके कान में कोई मंत्र दिया ।परन्तु ईश्वर ने तो उनका मार्ग उनके जन्म से पहले निश्चित कर रखा था, इसलिए उन्हें तो इस पथ पर चलना ही था, तो उसी ईश्वर ने उन्हें वर्तमान काल का “एकलव्य” बना दिया ।परम श्रद्धेय अघोर मूर्ति ने अपनी आध्यात्मिक शक्ति स्वप्रेरणा से स्वयं “एकलव्य” के रूप में ही एकाकी तपस्या करते हुए ही प्राप्त की है ।
परम श्रद्धेय अघोर मूर्ति के शब्दों में “मेरा कोई आधिकारिक गुरु नहीं रहा है, परंतु मैंने अवधूत भगवान राम जी को ही अपना मानस गुरु माना, मुझे किसी ने बैठाकर दीक्षा नहीं दी और न ही किसी ने मेरे कान में गुरु मंत्र दिया ।मैं एक प्रकार से यह कहूंगा कि मैं स्वयं दीक्षित हूं ।मैंने जो कुछ भी साधना या तपस्या किया, वह स्वप्रेरणा से किया ।एक तरह से मैंने जो कुछ भी प्राप्त किया वह एकलव्य की भांति ही प्राप्त किया । मुझे किसी ने बैठकर कभी कुछ सिखाया नहीं है और आज भी मैं स्वप्रेरणा से ही कार्य करता हूं ।और न ही मैं ऐसा महत्वकांक्षी हूँ कि मुझे यह सिद्धि चाहिए या कुछ और अलौकिक शक्तियां चाहिए, ऐसी इच्छा कभी भी जीवन में हुई नहीं ।साधुता एवं सादगी सबसे बड़ी सिद्धि है ।”
परम श्रद्धेय अघोर मूर्ति के अनुसार पूज्य अघोरेश्वर अवधूत भगवान राम जी को मानस गुरु मानने के साथ ही “मैंने आदि शक्ति को गुरु माना, ईश्वर को गुरु माना, क्योंकि हम सभी में उस ईश्वर को देखते हैं ।इसलिए किसी एक विशेष देवी-देवता की पूजा मैंने नहीं की ।मैं सभी प्रकार के सभी देवी-देवताओं के प्रति एक सा ही भक्ति भाव रखता हूँ ।आज भी रखता हूँ और वर्ष भर में जितने भी त्यौहार आते हैं, चाहे वह कृष्ण जन्माष्टमी हो, चाहे वह शिवरात्रि हो, चाहे वह रामनवमी हो, नवरात्रि हो, मैं सभी देवी-देवताओं की पूजा विधिवत करता हूँ ।सभी के प्रति वही पवित्र समान भाव से मुझ में रहता है । सम्पूर्ण विश्व में ही उस परम शक्ति की अनुभूति करता हूँ और यह मानता हूँ कि सब में वही एक परम शक्ति है ।मैंने कोई सिद्धि और साधना के लिए किसी भी प्रकार की कोई विशेष पूजा नहीं की, जो कुछ भी किया स्वप्रेरणा से किया, आत्मा की पवित्रता से किया क्यों कि बाबा अघोरेश्वर जी बोले हैं कि “आत्मा की पवित्रता ही सबसे बड़ी चीज होती है ।बस उसी को आधार मानकर पवित्र भाव से उस परम शक्ति को जब-जब हमने याद किया, तब तक हमें उनकी सदैव स्पष्ट अनुभूति हुयी, इसके लिए मैं ईश्वर का, उस परम शक्ति का बहुत ही आभारी हूँ कि मुझ जैसे साधारण व्यक्ति की, उन्होंने पुकार सुनी और अपनी अनुभूति “स्पष्ट रुप” में मुझे दिखाई और जब किसी व्यक्ति को उस परम शक्ति की “स्पष्ट अनुभूति” हो जाए तो उसको जीवन में किस बात का भय, किस बात का अभाव, किस बात का संकट, बस यहीं से हम आगे निकल पड़े ।जीवन-आरम्भ से ही मानव-सेवा की भावना हमारे हृदय में सदैव प्रबल रही ।बचपन में हमने एक “जनता सेवा संस्थान” बनाया था, जब हम रेहला में रहते थे तो हम वहाँ पर बच्चों को इकट्ठा करते थे, चंदा इकट्ठा करते थे, लोगों की सहायता करते थे, स्ट्रीट लाइट आदि लगवाते थे ।”
अपनी शिक्षा के दौरान ही परम श्रद्धेय अघोर मूर्ति ने अघोरेश्वर अवधूत भगवान राम के विचारों का प्रचार करते हुए, कई बार इलाहाबाद से वाराणसी तक की साइकिल एवं पैदल यात्रा की ।परम श्रद्धेय अघोर मूर्ति बताते हैं कि उनके मन-मष्तिष्क से वह दिन कभी भी नहीं भूलेगा जब वे वाराणसी स्थित पड़ाव आश्रम गए थे और उन्हें परम श्रद्धेय गुरुपद बाबा संभव राम जी ने उन्हें माँ सर्वेश्वरी का चित्र आशीर्वाद स्वरूप दिया था ।
परम श्रद्धेय अघोर मूर्ति , इलाहाबाद में सर्वेश्वरी समूह की शाखा तेलियरगंज के आश्रम में आया-जाया करते थे और वहाँ बहुत परिश्रम करते थे ।वहाँ झाड़ू लगाना, बर्तन धोना तथा अन्य किसी भी प्रकार के कार्य को वह बड़ी तन्मयता से और पूर्ण निष्ठा से करते थे ।इसी कारण धीरे-धीरे 1 वर्ष बाद उनकी पहचान वहाँ के सदस्यों में, वहाँ के सेवादारों में, वहाँ के प्रबंधकों में बन गई थी ।फिर कभी-कभी वो वाराणसी में भी बाबा के आश्रम भी जाया करते थे ।फिर जब भी इलाहाबाद में गंगा किनारे माघ मेला लगता था तो सर्वेश्वरी समूह का वहाँ पर कैंप लगता था ।वे वहाँ पर भी जाते थे और परिश्रम करते थे ।इसी प्रकार से फिर धीरे-धीरे वहाँ के सदस्यों ने उन्हें कुछ-कुछ उत्तरदायित्व देना शुरू किया जिसको वे पूर्ण निष्ठा से पूर्ण भी करते थे ।एक प्रकार से श्री सर्वेश्वरी समूह, उनका आध्यात्मिक एवं मानव-सेवा का विश्वविद्यालय बन गया था, जहाँ वो पूरी निष्ठा एवं हार्दिक प्रसन्नता से अपनी सेवाओं को देने के लिए सदैव तत्पर रहते थे ।
अपनी पढ़ाई पूरी कर लेने के बाद और श्री सर्वेश्वरी आश्रम की गतिविधियों एवं कार्यक्रमों में विशेष लगाव होने के कारण परम श्रद्धेय अघोर मूर्ति ने अपने घर को लगभग त्याग दिया था ।उनका कोई भी दिन व्यर्थ नहीं जाता था और यह क्रम आज भी उसी प्रकार से ही चल रहा है ।उन्हें पढ़ने का बहुत शौक रहा ।दिन भर श्री सर्वेश्वरी आश्रम में सेवा देने के बाद वह रात्रि में अपना अध्ययन जारी रखते थे ।परम श्रद्धेय अघोर मूर्ति सदैव किसी न किसी रचनात्मक सेवा कार्य में अपने को सदैव व्यस्त रखते हैं ।उनका एक भी पल व्यर्थ नष्ट नहीं होता ।
परम श्रद्धेय श्री भैया जी , बहुत दिनों तक यह श्री सर्वेश्वरी समूह के वर्तमान अध्यक्ष गुरु पद बाबा संभव राम जी के सानिध्य में छत्तीसगढ़ के सोगडा आश्रम जो कि जशपुर जिले में पड़ता है, वहाँ पर रहे ।श्री सर्वेश्वरी समूह के वर्तमान अध्यक्ष गुरुपद बाबा संभव राम जी कई बार परम श्रद्धेय अघोर मूर्ति के पैतृक नगर रेहला में पधार चुके हैं ।इनके कार्यों से प्रभावित होकर परम पूज्य गुरु पद बाबा जी ने इन्हें बिलासपुर आश्रम की जिम्मेदारी दी ।परम श्रद्धेय अघोर मूर्ति 1999 में बिलासपुर गए थे ।इनके परिवार को बहुत दिनों बाद पता चला कि इनका लड़का, अब इलाहाबाद में पढ़ता नहीं है बल्कि इलाहाबाद से काफी दूर बिलासपुर आश्रम में सेवा एवं देखभाल कर रहा है ।इस पंथ से जुड़ने के बाद इनका घर में आना लगभग बंद सा ही हो गया था ।
एक दिन परम श्रद्धेय अघोर मूर्ति ने बिलासपुर में यह निर्णय लिया कि वह अब वे इलाहाबाद वापस जाएंगे और वहाँ से इलाहाबाद आ गए ।संभवत कुछ लोगों ने उनके इस निर्णय पर आश्चर्य किया होगा परंतु उस माँ सर्वेश्वरी का विधान कौन समझ सकता था? और वह पुनः एक बार इलाहाबाद आ गए और वह अपने जीवन यापन के लिए लोगों को ट्यूशन पढ़ाया ।कठिन परिस्थितियाँ थी, परंतु वह स्वाभिमान एवं परिश्रम द्वारा बिना किसी दूसरे पर आश्रित हुए अपना जीवन यापन कर रहे थे ।
परम श्रद्धेय अघोर मूर्ति को ईश्वर प्रदत्त, स्वप्रेरणा एवं स्व-दीक्षित होने के कारण कुछ विशेष शक्तियां या उपलब्धियां प्राप्त थी, इसलिए वह जब भी किसी व्यक्ति को देखते तो उसके बारे में उनको संपूर्ण जानकारी हो जाती थी । वहाँ तक कि जब भी वह किसी का ध्यान करते तो दूरस्थ स्थानों में बैठे हुए व्यक्ति का भी पूरा विवरण उनके सामने होता ।इसी कारण इलाहाबाद नगर में धीरे-धीरे कई व्यक्तियों के मन में यह धारणा बनती गई कि यह कोई साधारण पुरुष नहीं हैं बल्कि इन पर ईश्वर की विशेष अनुकंपा है क्योंकि वहाँ पर कुछ ऐसी स्थितियों का निर्माण हो रहा था जिससे इन्हें सामान्य व्यक्ति से अलग विशिष्ट व्यक्ति समझा जाने लगा हालांकि परम श्रद्धेय अघोर मूर्ति ने कभी भी अपनी अलौकिक प्रतिभा का प्रचार नहीं किया बल्कि लोगों से बचने के लिए वह स्नान गृह में छिप कर अपनी पढ़ाई जारी रखते और लोग उनके कमरे में उनको उपस्थित न देखकर वापस हो जाते थे, वह इस प्रचार-प्रसार से बचते थे, क्योंकि उनका सही मार्ग तो ईश्वर ने पहले ही प्रशस्त कर रखा था, वो उससे विलग नहीं होना चाहते थे, परंतु आज के इस वातावरण में एक विशुद्ध आत्मा की सुगंध अपने आप समाज में प्रवाहित होने लगती है, उसे भला कैसे कोई रोक सकता था ।
परम श्रद्धेय अघोर मूर्ति के स्वयं के शब्दों में “परम शक्ति की कृपा एवं आशीर्वाद से मुझसे लोग अपना भविष्य पूछते, हाथ दिखाते तो बस वह परम शक्ति जो मेरे मन में विचार लाती थी, मैं वही उनको उत्तर दे देता था ।मैंने ज्योतिष एवं हस्त रेखा की कोई भी शिक्षा या पढ़ाई या अभ्यास नहीं किया ।जो कुछ भी वह परम शक्ति हमें विचार देती थी, मैं उसी को, लोगों के प्रश्नों के आधार पर उत्तर के रूप में दे देता था और उस परम शक्ति की ऐसी असीम कृपा थी कि जो कुछ भी मेरे मुंह से निकलता था, वह भविष्य में सत्य हो जाता था ।इसके लिए मेरे अंदर किसी भी प्रकार का कोई भी अभिमान, गर्व या घमंड की भावना कदापि भी नहीं रही है और आज भी नहीं है ।”
अन्तः करण की शुद्धता कर्म से होती है। कर्म पहला है तो ज्ञान दूसरा। दोनों एक दूसरे के पूरक हैं। एक के बगैर दूसरा अधूरा रह जाता है। जब कर्म से अन्तः करण की शुध्दि होती है तब ज्ञान की उत्पत्ति होती है।
परम पूज्य अघोरेश्वर अवधूत भगवान राम जी